झारखंड
प्रदेश हमारे देश का एक अहम राज्य है जो दुनिया
भर में अपनी खानों और अपने खनिजों के लिए प्रसिद्ध
है. झारखंड राज्य अपने नाम के ही अनुरूप झाड़,
जंगल और हरियाली से भरपूर है . इसकी पहचान सिर्फ यहाँ के खनिज
पदार्थों से ही नहीं बल्कि अपने जनजातीय समूह की वजह से भी है. यहाँ का जनजातीय
यानि आदिवासी समाज बेहद शांति प्रिय और ज़मीन से जुड़ा हुआ है. झारखंड के आदिवासी अपने
रहन सहन में जितने सरल हैं, उनकी धरोहर उतनी
ही धनी है.
सरहुल
इसी अनकही और अनसुनी सभ्यता का महापर्व हैं. सरहुल का शाब्दिक अर्थ होता है, साल के
पेड़ की पूजा.
झारखंड
साल की लकड़ी और पत्तों का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है और इसके पत्ते कटोरे बनाने के
लिए उपयोग किए जाते हैं जिनमें त्यौहारों के
दौरान प्रसाद वितरित किया जाता है. साल की पत्तियों का
पान बनाने के लिए भी उपयोग किया जाता है. साल का उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं में
एक कसैले पदार्थ के रूप में भी किया जाता है और इसके बीजों का उपयोग दीयों का तेल बनाने के लिए किया जाता है. ऐसा कहा जाता है
कि सरहुल की प्रथा महाभारत के युग से चली आ रही है . कहानियों के अनुसार महाभारत के
युद्ध में कई आदिवासियों ने कौरवों की तरफ से पांडवों के विरुद्ध लड़ाई में भाग लिया
था . इनके मृत सैनिकों के शरीर की पहचान करने के लिए उनके समुदाय के लोग उनके मृत शरीर को साल के पत्तों
से ढक देते थे . जहाँ दूसरी लाशें सड़ने लगती थी वहीं पर साल के पत्तों से ढके मृत शरीर लम्बे समय तक भी
ख़राब नहीं होते थे . झारखंड का आदिवासी समुदाय प्रकृति की पूजा करता है अपने त्यौहारों में प्रकृति
के हर रूप पानी, धरती पहाड़ , जंगल को अपनी
प्रार्थनाएं अर्पित करते हुए अच्छी फसल, अच्छी
बारिश और खुशहाली की कामना करता है.
सरहुल
यूँ तो उरांव या कुड़ुख समुदाय का मुख्य रूप से मनाया जाने वाला पर्व है लेकिन झारखंड
, छत्तीसगढ़ , अंडमान और जहाँ कहीं भी झारखंड
जनजातीय बस्ती है वहीं इसे धूमधाम से मनाया जाता है . क्या आप जानते हैं सरहुल के त्यौहार
के पहले जितने भी नए खाने वाले फल या फूल जैसे
कोंहड़ा फूल, बड़ी , फुटकल, जोकी(सहजन), खुखरी और संधना, कटहल , सेम इत्यादि उनका
सेवन नहीं किया जाता और सरहुल की पूजा हो जाने
के बाद ही इन्हें खाया जाता है. सरहुल तीन
दिन तक पूरे हर्षोल्लास और आस्था के साथ मनाया जाने वाला त्यौहार है. सरहुल के पहले
दिन घरों ,पूजा स्थलों ,साल के पेड़ों की साफ
सफाई और सजावट की जाती हैं . त्यौहार में बनने वाले खास व्यंजनों के लिए सामग्री
खरीदी जाती है और परिवार के मुखिया व्रत भी रखते हैं . घर के कुओं को भी साफ़ किया जाता
है और यह एक ख़ास उद्देश्य से किया जाता हैं
. साफ़ करने के बाद रात भर इस साफ़ कुएं में जितना
पानी जमा हो जाता है उसे घड़ों में भर का पूजा स्थलों पर ले जाया जाता है और पानी से
भरे ये घड़े वही पर छोड़ दिए जाते हैं. अगले
दिन फिर उन घड़ों को देखा जाता हैं और माना जाता हैकि यदि उन घड़ों में से पानी घट गया तो इसका मतलब है
कि आने वाले साल में बारिश कम होगी लेकिन यदि घड़े में पानी लबालब भरा रहा तो आने वाले
साल में बारिश बहुत अच्छी होगी. उस समुदाय
के बड़े बुजुर्गों का मानना है कि इस परंपरा की भविष्यवाणी कभी गलत नहीं होती .
खैर
बात आस्था और विश्वास की है. पाहन (पुजारी) के पूजा के बाद प्रसाद के रूप में हड़ियाँ
(चावल से बानी पेय) दी जाती है. सरहुल के तीसरे
दिन , लाल पड़िया साड़ी , धोती और ख़ूबसूरत वेशभूषा में सज कर लोग मांदर , ढोल , नगाड़ों
और तुरही के साथ भव्य शोभा यात्रा निकालते हैं , इस शोभा यात्रा में झांकियां भी निकाली
जाती हैं जो झारखंड की विभिन्न्न परंपराओं और स्वरुप को दिखाती हैं . फिर एक दूसरे को गुलाल
लगते हुए और कतारों में 'जोड़ा के नाच नाच कर'
सरहुल का त्यौहार अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँचता
है.
शोभा
यात्रा ख़त्म होने के बाद भी सरहुल का महोत्सव का अंत नहीं होता . रात भर स्वादिष्ट
व्यंजनों और नाच गाने के साथ सरहुल के पर्व की विदाई इस आशा के साथ की जाती है कि आने
वाला नया वर्ष सभी के लिए मंगलमय हो, फसल अच्छी
हो और हर तरफ खुशहाली छाई रहे .
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