Saturday 17 May 2014

"जिन्दगी कैसी है पहेली"-राजीव कुमार शुक्ल-उप महानिदेशक, आकाशवाणी

"जिन्दगी कैसी है पहेली"-राजीव कुमार शुक्ल-उप महानिदेशक, आकाशवाणी


पता नहीं, निम्न मध्य और मध्यवर्गीय परिवारों के किशोर लड़कों को सिनेमा देखने के लिये अब घर से सब्ंजी-भाजी जैसी खंरीदारी करने को मिलने वाले पैसों में से छोटी-मोटी हाथ-संफाई की ंजरूरत पड़ती है कि नहीं। मेरे कैशोर्य के दिनों में बहुत से मित्रों को पड़ती थी, क्योंकि तब ंफिल्म देखने जाना अपने को संस्कारशील मानने वाले बहुतेरे परिवारों में कोई बहुत वांछनीय बात नहीं मानी जाती थी। घर के बड़े मानते थे कि इससे लड़कों के बिगड़ जाने की आशंका बढ़ जाती है। लड़कियों को लेकर तो दृष्टि और भी 'तालिबानी' हुआ करती थी। अच्छा, यह बिगड़ जाना क्या था? वैसे तो इसमें परिवार की पारम्परिक सत्ता प्रणाली को कई स्तरों पर चुनौती मिलने और तरुणों-युवाओं के कम आज्ञाकारी बन जाने का डर बसा होता था, पर सबसे प्रकट चिन्ता नई पीढ़ी के रोमांस यानी इश्क-मोहब्बत के चक्कर में पड़ जाने की होती थी। कुल मिला कर भय शायद जानी-बूझी सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य यथास्थिति में अनचाहे परिवर्तनों का था। जो भी हो, इन सब और ऐसे ही कारणों से सिनेमा देखना बच्चों-किशोरों के लिये लगभग वर्जित कर्म था और प्रत्येक वर्जित कर्म की तरह उसका आकर्षण भी दुर्दमनीय हुआ करता था। शायद मेरी तरह पचास पार कर चुके लोगों को याद हो कि हमारे बचपन में 'नॉवेल' यानि उपन्यास पढ़ना भी इसी प्रकार शंका की नंजर से देखा जाता था और लड़कियों पर इस निषेधाज्ञा की भी संख्ती यादा हुआ करती थी।

मेरा खंासा बड़ा सौभाग्य था कि मेरे माता-पिता और कई मामलों के साथ-साथ इस प्रसंग में भी कांफी उदार थे और मेरी सुदूर बचपन की स्मृतियों में भी माता-पिता के साथ कांफी नियमितता के साथ ंफिल्में देखने के कई अनुभव बसे हुए हैं। उन बिल्कुल शुरुआती ंफिल्मों में अपेक्षाकृत अधिक स्पष्टता से 'मंझली दीदी' की याद है, जिससे मीना कुमारी के व्यक्तित्व के मेरे बोध में छोटे निरुपाय बच्चों के प्रति उनकी करुणा, स्नेह और निश्छल मातृत्वभाव का ऐसा समावेश हुआ कि वे मेरी सर्वाधिक प्रिय ंफिल्म अभिनेत्री बन गईं और बदलती-बढ़ती उम्र के साथ आवेगों, आकर्षणों, संवेदना, विवेक और विश्लेषण की ढेर सारी सीढ़ियां चढ़ आने के बाद भी मेरे निकट उनका वह स्थान यों का त्यों बना हुआ है। कुछ बाद में, इसी प्रकार गहरा प्रभाव छोड़ने वाली ंफिल्म 'शहीद' थी, जिसमें क्रांतिकारी भगत सिंह के रूप में मनोज कुमार मन पर ऐसे छाए कि बाद में जब यह अहसास अच्छी तरह हो गया कि उनकी अभिनय प्रतिभा की बड़ी स्पष्ट सीमायें हैं, तब भी 'शहीद' के भगत सिंह के उनके निभाए चरित्र से न केवल कोई शिकायत नहीं हुई, बल्कि उस चरित्र के लिये प्रतिमान वे ही बने रहे।इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि अन्य अनेक कलामाध्यमों के रसास्वादन की ही तरह सिनेमा में भी भाव पक्ष का महत्व अंतत: विचार और विश्लेषण से कुछ यादा ही बैठता है। इसीलिये कई ऐसी प्रवृत्तियां और परिणाम हमारे सामने आते हैं, जो प्रकट रूप से तर्क की कसौटी पर खरे उतरते नहीं प्रतीत होते। कई कलाकार इतने सफल क्यों होते हैं, जबकि सांफ तौर पर उतने ही या अक्सर उनसे यादा प्रतिभासम्पन्न कलाकार सफलता की उन ऊंचाइयों को क्यों नहीं छू पाते और अन्य कई सफलता की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ते-हांफते ही क्यों रह जाते हैं? इन सवालों पर लोगों ने बहुत सोचा है, पर कोई सीधा या हमेशा खरा रहने वाला उत्तर मिल नहीं पाया है। स्पष्ट है कि चूंकि एक अत्यंत सम्भावनाशील सृजनात्मक कलारूप होने के साथ-साथ सिनेमा अक्सर खंासी बड़ी, कई बार तो भीषण रूप से विराट धनराशियों के खपने और फिर कमाए जाने का विशुद्ध व्यावसायिक दांव भी होता है, इसलिये कलात्मक विमर्श के ही ंजरिये इसके ओर-छोर को समझ और आंक पाना सम्भव नहीं होता।

बचपन में देखी गई बहुत सी फिल्में मेरी स्मृति और चेतना का सदा के लिये हिस्सा बन गईं। उम्र के हर दौर में सिनेमा के साथ सपने बांटने का सिलसिला चलता रहा, सपने जो सिनेमा ने जगाए या उकसाए और सपने जो खुंद ने अपने प्यार और लगाव के साथ सिनेमा को साैंपे। लगभग सबके साथ यह होता रहा है, मेरे साथ भी हुआ।बिमल रॉय निर्देशित ंफिल्मों का मेरे मनोजगत में विशेष स्थान और प्रभाव है। उनमें भी 'बन्दिनी' (बांग्ला लेखक जरासंध की कहानी पर आधारित) से मेरा खंास जुड़ाव था और है। उसके किसी भी पक्ष पर बात करने बैठूं, तो मन कभी जैसे भरेगा ही नहीं। मसलन संगीत की ही चर्चा की जाए तो सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में शैलेन्द्र और गुलंजार के लिखे इस ंफिल्म के गीत हिन्दी ंफिल्म संगीत के सबसे मूल्यवान गीतों में सहज ही अपनी जगह बना लेते हैं। लता मंगेशकर, मुकेश, आशा भोंसले और स्वयं सचिन देव बर्मन के गाए हुए इन गीतों में प्रेम के उद्दाम और फिर भी शालीन आवेग से ले कर घनीभूत नैराश्य और वेदना को मुखर किया गया। उस समय प्रयास होता था कि गीत-संगीत ंफिल्म के कथा-प्रवाह के साथ भी संबद्ध रहे। इस ंफिल्म में प्रेम, अपकीर्ति, त्याग और अभिमान के कथासूत्र अंग्रेंजी शासकों के विरुद्ध चल रहे स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि में घटित होते हैं। इसी सन्दर्भ में फांसी चढ़ाने के लिये ले जाए जा रहे एक स्वतंत्रता सेनानी की कारागार की भीषणता में हो रही अंतिम यात्रा के साथ गीत चलता है 'मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे, जनमभूमि के काम आया मैं बड़े भाग है मेरे।' देशभक्ति में उत्सर्ग और बलिदान के भावों की जिन ंफिल्मी गीतों में सर्वाधिक मार्मिक और झकझोर देने वाली अभिव्यक्ति हुई है, मेरी दृष्टि में उनमें इस गीत को सबसे अग्रणी पंक्ति में रखा जाना चाहिए। इसे गाया था मन्ना डे ने, जिनके बिल्कुल हाल में हुए निधन पर ंफिल्म और संगीत प्रेमी लोग गहरे शोक में डूबे हैं।

मन्ना डे को दी जा रही श्रद्धांजलियों में जहां उनके गाए अनेक अमर गीतों को याद किया जा रहा है और उनके गायन कौशल के चमत्कृत कर देने वाले वैविध्य की चर्चा हो रही है और विशेष रूप से शास्त्रीय संगीत आधारित गीतों को गाने में उनकी अद्वितीय निपुणता की बात की जा रही है, वहीं यह भी महसूस किया और कहा जा रहा है (उनके जीवन काल में भी समय-समय पर यह चर्चा हुई थी) कि जिस विराट प्रतिभा के मन्ना दा धनी थे, उस अनुपात में उनका प्राप्य उन्हें नहीं मिला। ऐसा क्यों हुआ, इसका पहले भी यह विश्लेषण हुआ था, जो अब फिर दोहराया जा रहा है कि मन्ना डे उस तरह किसी एक या कुछ शीर्ष नायकों के स्वर नहीं बन सके, जैसे मुकेश राजकपूर के थे (हालांकि राज कपूर पर ंफिल्माए गए कुछ सबसे मीठे और लोकप्रिय युगल प्रेम गीत मन्ना डे ने लता मंगेशकर के साथ गाए थे), मोहम्मद रंफी दिलीप कुमार (और बाद में राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर और अन्य अनेक अति सफल नायकों) के और किशोर कुमार राजेश खन्ना (पहले कुछ हद तक देव आनन्द भी और बाद में अपनी अपार सफलता के दौर में तो लगभग हर नायक) के प्रमुख गायक स्वर बन गए। मैं कुछ हद तक इससे सहमत हूं, पर मुझे लगता है कि एक अन्य बड़ा महत्वपूर्ण कारण वह भी है, जिसे बंबइया (या मुंबइया) सिनेमा की दुनिया में 'टाइप्ड' हो जाना कहा जाता है यानि नाना प्रकार के कारणों या कई बार महंज संयोगवश किसी कलाकार की एक छवि बन जाती है या बना दी जाती है और फिर उससे बाहर निकल पाना बहुधा असम्भव हो जाता है।

मैं ंफिल्म संगीत के इतिहास और हलचलों के सम्यक ज्ञान का दावा कतई नहीं कर सकता और इसीलिये कुछ सहमते-सहमते ही यह स्थापना प्रस्तुत कर रहा हूं कि भारतीय सिनेमा की मुख्य धारा में प्रेम करना नायक के अनिवार्य क्रियाकलापों में से एक है और इसकी अभिव्यक्ति लगभग हमेशा वह गा कर करता है। मन्ना डे के अधिक प्रसिद्ध गीतों को याद करने पर उनमें नायक के एकल प्रेम गीतों की संख्या अपेक्षाकृत कांफी कम जान पड़ती है (अमर युगल प्रेम गीत बहुत सारे हैं राज कपूर के लिये गाए गीतों के अलावा भी), जो उनके समकालीन दूसरे बड़े गायकों से भिन्न प्रकार की स्थिति है। उनका गाया जो शायद सबसे यादा लोकप्रिय और प्रसिद्ध एकल प्रेम गीत है, वह ंफिल्म 'वंक्त' का 'ऐ मेरी ंजोहरा ंजबीं' है, जो निश्चय ही सदाबहार प्रेम की एक अमर अभिव्यक्ति है, पर वह यौवन की उठान के नायक का स्वर नहीं है, बल्कि 'तू अभी तक है हसीं और मैं जवां' वाले परिपक्व, प्रगाढ़ और प्रौढ़ भरोसे का मामला है। उनके गाए गीतों में एक खंास बात और आरंभिक दौर से ही दिखने लगती है, जो है उनमें पिरोई हुई दार्शनिकता। कई बार वह निस्संगता तक पहुंचती है। 'फिर कहीं कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको' और 'ए भाई, ंजरा देख के चलो' जैसी मन:स्थिति। हिन्दी ंफिल्म संगीत की दुनिया में शास्त्रीयता भी प्रौढ़ता का ही आशय रखती प्रतीत होती है।

तो मन्ना डे कुछ वरिष्ठता की छवि के साथ अपनी शानदार और वैविध्य संपन्न गायकी के दम पर लोगों का सम्मान, आदर और श्रद्धा कमाने वाले गायक बन जाते हैं, पर उनका दीवानगी भरा लगाव हासिल नहीं कर पाते। मैंने शुरू में ंजिक्र किया था कि पहले बड़े-बुंजुर्ग नई पीढ़ी को सिनेमा से इसलिये बचा कर रखना चाहते थे, क्योंकि उन्हें सिनेमा के ंजरिये नयों के इश्क-मोहब्बत में पड़ जाने की घबराहट बनी रहती थी। कई बार ऐसा लगता है कि हिन्दी सिनेमा को ले कर उनकी समझ वास्तविकता से बहुत दूर नहीं थी, क्योंकि बहुधा अतिनाटकीयता से ग्रस्त सही, प्रेम हमारे पारंपरिक सिनेमा का स्थाई भाव प्रतीत होता है। प्रेम के लोकप्रिय सिनेमाई रूप में जीवन के असली सवालों से जूझता, मधुर किंतु गंभीर, यथार्थ के संस्पर्श से जीवन्त प्रेम कम और कैशोर्य की रुमानियत से लबलबाता प्रेम अधिक नंजर आता है। इससे ही तय हो जाता है कि किस शैली के कैसे व्यक्तित्वों वाले कलाकार अधिक सफल और लोकप्रिय हो जाते हैं।

'तीसरी कसम', 'अनुभव', 'आविष्कार' और 'आस्था' जैसी महत्वपूर्ण फिल्मों के निर्देशक बासु भट्टाचार्य से एक बातचीत संभव हुई थी, जब वे मृत्यु से कुछ पूर्व जबलपुर आए थे। बौद्धिक फिल्मों के महारथी बासु दा ने एक अत्यंत विचित्र प्रतीत होने वाली बात कही। उन्होंने कहा कि जनता को पागल और अभिभूत कर देने वाली लोकप्रियता की पहली शर्त अभिनय प्रतिभा नहीं है, बल्कि एक मादक आकर्षण बिखेर सकने और उत्तेजना जगा सकने वाली क्षमता है। इस तर्कप्रणाली को यों का त्यों न भी स्वीकार कर लिया जाए, तो भी लोकप्रियता के तत्वो की पहचान में कुछ मदद तो मिलती ही है।

रेहाना सुल्तान पूना (अब पुणे) ंफिल्म संस्थान से अभिनय में स्वर्ण पदक ले कर उत्तीर्ण ही नहीं हुईं, बल्कि बंबई के ंफिल्म उद्योग में नायिका के तौर पर चुनी जाने वाली संस्थान की पहली छात्रा भी बन गईं, जब उन्हें सुप्रसिद्ध उर्दू कथाकार और ंफिल्म निर्देशक राजेन्दर सिंह बेदी ने अपनी ंफिल्म में लिया। 'दस्तक' के लिये अनुबंधित किया। उनकी पहली प्रदर्शित ंफिल्म 'चेतना' अपने 'बोल्ड' दृश्यों और साहसी कथावस्तु को ले कर खूंब चर्चित और व्यावसायिक दृष्टि से सफल ही नहीं हुई, बल्कि एक समर्थ अभिनेत्री के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित भी कर गई। 'दस्तक' के कठिन और जटिल चरित्र के लिये अपने भावप्रवण अभिनय के बल पर तो रेहाना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। पर इस शानदार सफलता से हुई शुरुआत के बाद भी रेहाना की पारी बहुत लम्बी नहीं चली। हालांकि बाद में भी 'हार-जीत' और 'प्रेम पर्वत' जैसी फिल्मों में उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता का प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन पहले जैसी सफलता फिर उनके हिस्से में नहीं आई। कई लोग मानते हैं कि रेहाना तथाकथित 'बोल्ड' भूमिकाओं के लिये 'टाइप्ड' हो गई थीं और उस दौर में नायिका की प्रचलित छवि के लिये उस ंकदर 'बोल्ड' विषयवस्तु की ंफिल्में घाटे का सौदा साबित हुईं। इसके कुछ ही वर्ष बाद भरपूर 'बोल्डनेस' के साथ ंजीनत अमान और परवीन बाबी आईं और खंासी सफल रहीं। दीप्ति नवल यथार्थवादी अभिनय धारा की सशक्त प्रतिनिधि के रूप में जानी जाती हैं, पर सच पूछिए तो शबाना आंजमी या स्मिता पाटिल जैसी ऊंचाइयों तक पहुंचने के अवसर उन्हें अपेक्षाकृत कम ही मिले। रामेश्वरी, ंजरीना वहाब जैसे नाम भी लगभग इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं। मैं नीना गुप्ता और मीता वशिष्ठ को भी बहुत समर्थ अभिनेत्रियां मानता हूं, पर उन्हें भी वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी वे हंकदार थीं।

अभिनेताओं की बात की जाए, तो बलराज साहनी, संजीव कुमार जैसे अद्भुत प्रतिभासंपन्न कलाकार सफल तो हुए, पर व्यावसायिक स्तर पर उनकी सफलता उनसे कहीं कम प्रतिभा वाले कई सजनों की तुलना में कम ही रही। ंफिल्म संगीत के गहरे प्रेमी और अध्येता पंकज राग ने अपने विराट ग्रन्थ 'धुनों की यात्रा' में सलिल चौधरी, चित्रगुप्त, रोशन, मदन मोहन, जयदेव, खय्याम जैसे अनेक विलक्षण सर्जनात्मक प्रतिभा के धनी संगीतकारों की चर्चा करते हुए इस तथ्य को रेखांकित किया है कि इन्हें शंकर-जयकिशन, ओ पी नैयर, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल आदि जैसी लोकप्रियता और सफलता नहीं मिल सकी।   किसी एक तर्क से इसे समझना कठिन है, पर हिन्दी सिनेमा की रचनात्मक जोखिम उठाने से बचने, व्यावसायिकता के अतिशय घटाटोप और उससे उद्भूत भेड़चाल की प्रवृत्ति कांफी हद तक ऐसी स्थितियों के लिये उत्तरदायी मानी जा सकती है। और हां, नियति का भी कुछ खेल होता तो ंजरूर है। मन्ना डे का गाया 'आनन्द' का वह अमर गीत याद करें 'ंजिन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए'।और निश्चय ही अंतत: एक कला माध्यम के रूप में, सामान्य लोगों के सुख-दुख, सपनों और आंसुओं से झिलमिलाता सिनेमा का जो जादू है, उसमें इन सभी ज्ञात-अल्पज्ञात, यहां तक कि काल के साथ अज्ञात हो चली प्रतिभाओं का भी योगदान है, हंक भी है। यह यात्रा तो अभी अनन्त तक चलनी है और हम सब इसमें सहयात्री हैं।

No comments:

Post a Comment