Wednesday, 5 September 2012

संस्‍मरणों की एक शाम

4 सितंबर 2012 की शाम इंडिया हैबिटैट सेंटर  में आकाशवाणी दिल्‍ली की ओर से 'संस्‍मरणों की शाम' शीर्षक प्रोग्राम का आयोजन हुआ। इसमें देश के जाने माने कथाकार, पत्रकार, संपादक ज्ञानरंजन और ओम थानवी ने अपने अपने संस्‍मरण सुनाए। समारोह की अध्‍यक्षता करते हुए वरिष्‍ठ आलोचक विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों से संस्‍मरण जैसी गंभीर विधा की ओर आलोचकों का ध्‍यान जाएगा। उन्‍होंने कहा कि यूं साहित्‍य की पहचान विधा से नहीं उसकी अंतरवस्‍तु की मानवीयता से होती है।

कार्यक्रम के आरंभ में जनसत्‍ता के संपादक ओम थानवी ने कोपेनहेगेन, इस्‍तांबुल, रूमी,मोहनजोदडो आदि पर अपने संस्‍मरण सुनाए। कोपेनहेगेन की बर्फबारी के बारे में बताते हुए उन्‍होंने कहा कि वहां बर्फ रेत की तरह गिर रही थी। रेगिस्‍तान में रेत भी वैसे ही गिरती है जैसे वहां बर्फ गिर रही थी। इस्‍तांबुल के बारे में उन्‍होंने कहा कि इस्‍तांबुल पूरब को पश्चिम से जोडने वाला विश्‍व का एक मात्र क्षेत्र है। वहां चिनार के पेड कश्‍मीर की तरह काफी हैं पर वहां के चिनार कश्‍मीर के चिनारों से नाटे हैं। फिर उन्‍होंने रूमी की सूक्तियां सुनाईं - कि धारदार तलवार भी रेशम को नहीं काट सकती।

ओम थानवी के बाद वरिष्‍ठ कथाकर ज्ञानरंजन ने इलाहाबाद के संस्‍मरण सुनाए। उन्‍होंने कहा कि - इलाहाबाद मरी हुयी आंख की पुतलियों की तरह फैल गया है। ... वहां बगीचों में दफ्तर खुल गये हैं और सडकों पर घर बन गए हैं। ... शरीफ लोग है कि वे नदी को ही अपने घर तक ले जाना चाहते हैं ...कि अब लोगों को नदी की तरफ नहीं जाना पडता , रेलें उनके घर तक सबकुछ ले जाती हैं।

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