काण्डे मुण्डा दक्षिण छोटानागपुर के मुण्डारी जनजातीय समुदाय से थे। पांच फुट एक या दो इंच का कद। दुबला.पतला शरीरए रंग सांवला या उससे भी थोड़ा गहरा। सफेद घोती और आधी बॉह का कुर्ता बस यही उनकी वेशभूषा थी। मैंने जब भी उन्हें देखा आकाशवाणी रांची के फार्म एण्ड होम अनुभाग से ढेर सारे टेप कंधे पर या बगल में दबाये स्टूडियो को जाते हुए या स्टूडियो से बाहर आते देखा। मुझे नहीं याद कि मैंने उन्हें कभी किसी के साथ बातचीत करते देखा हो। लेकिन अपनी सरलता के कारण वे आकाशवाणी में और अपने समाज में बेहद लोकप्रिय थे। उनके बारे में कहा जाता था कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में जो स्थिति भारतेन्दु रिशचन्द्र की है वही मुण्डारी साहित्य में काण्डे मुण्डा की है। मुण्डारी साहित्य की विधाओं को उन्होनें नयी रंगत से संवारा। मुण्डारी की नयी कविताए नई कहानीए नया उपन्यास याने मुण्डारी साहित्य में जो कुछ भी नयापन दिखता है उसकी शुरूआत काण्डे मुण्डा से होती है। मुण्डारी के बड़े कुशल गीतकार थे काण्डे मुण्डा। मुण्डारी समाज का कोई पर्व.त्यौहारए शादी.व्याह उनके गीत के बिना अधूरा ही रहता था। सरल व्यक्तित्वए
सहज आचरण और सजग दृष्टि उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग थे। दक्षिण छोटानागपुर के आदिवासियों में मांदर या मांदल बड़ा लोकप्रिय वाद्य रहा है। ढोलक की तरह दिखने वाले इस वाद्य का बीच का हिस्सा दोनों सिरों की तुलना में थोड़ा उभरा होता है। एक सिरा गोलाई में काफी कम और दूसरा सिरा ढोलक की गोलाई से कुछ कम लेकिन पहले सिरे की गोलाई थोड़ा बड़ा होता है। जानवर की खाल से बनाए गये चमड़े से मढ़े इसके दोनो सिरे ढोलक की तरह तांतनुमा किसी तार से कसे रहते हैं। इस वाद्य की लोकप्रियता के कारण ही म्भवतरू हिन्दी के अपने समय के सुप्रसिद्ध नव.गीतकार ठाकुर प्रसाद सिंह ने अपनी एक पुस्तक का शीर्षक ही रखा था दृवंशी और मादंल। उनका यह संग्रह संताली गीतों का बड़ा लोकप्रिय अनुवाद है। हिन्दी में नव.गीत की रूआत अज्ञेय इसी पुस्तक से मानते हैं। यद्यपि ठाकुर प्रसार सिंह ने बार.बार कहा है कि उनकी पुस्तक ष्वंशी और मांदलष् में उनके मौलिक गीत नहीं हैं। यह संताली गीतों का हिन्दी अनुवाद है। लेकिन इसके अनुवाद में ऐसा रस उमड़ता है कि इनमें मौलिक गीतों की सी रसानुभूति होती है।
बहरहालए एक दिन दोपहर के समय मैं किसी कार्यक्रम की रिकार्डिंग के सिलसिले में स्टूडियो से चला गया। आकाशवाणी के स्टूडियो कुछ इस तरह डिजाइन किए जाते हैं कि आप रिकार्डिंग बूथ में स्टूडियो के भीतर का दृश्य साफ देख सकते हैं। मैंने देखा कि व्यक्ति ष्मादरष् बजा रहा है। मांदर बजाने में वह इतना तल्लीन है कि उसके आस.पास क्या हो रहा है इसका भान ही उसे नहीं है। बिल्कुल समाधिस्थ। मैं एकटक उस कलाकार को मादंर बजाते देखता रहा।तब तक मुझे यह पता नहीं था कि यही काण्डे मुण्डा हैं। बाद में परिचय हुआ। उनके बारे में जैसे.जैसे पता चलता गया मैं चमत्कृत होता गया। कैसी.कैसी प्रतिभाएं आकाशवाणी के गले का हार रहीं हैं इसी से अन्दाज़ लगाया जा सकता है।
वारिश में भी एक बूंद पानी झोपडी के भीतर नहीं जा सकता था। असुर जनजाति की लडकियों की शादी की जो शर्ते होती थी उनमें एक शर्त यह भी होती थी कि लड़की पत्ते का घर बनाती है या नही।
मजेदार बात ये कि असुर लोग इन पत्तों की झोपडि़यों में अपने को बड़ा सुरक्षित महसूस करते थे। एक बार बिहार सरकार ने असुर परिवार को रहने को पक्का घर दे दिया। उसके भीतर आंगन में उस परिवार ने अपना पत्ते का घर बनाया और उसमें रहा। इतना सब होते हुए भी इनके पास बोली तो थी पर उसकी लिपि नहीं थी। लिपि तो पहाडियाए जयंतियाए विरजिया जनजातियों की बोलियों की भी नहीं थी। ऐसे ही और भी कई बोलियां थी जिनकी कोई लिपि नहीं थी। लेकिन कुरमाली जैसी जनजातीय बोली भी थी जिसके लिए चार- पांच लिपियों का उपयोग किया जाता था। उड़ीसा से लगे इलाके में कुरमाली लोग उडि़या लिपि का इस्तेमाल करते हैंए तो बंगाल से लगे इलाके में बगला लिपि का। एक चक्रवर्त्ती महाशय थे जिन्होनें अपनी एक लिपि तैयार कर दी थी। ईसाईयों ने दक्षिण छोटानागपुर की लिपि विहीन बोलियों को रोमन लिपि देकर उनके बीच पैठ बनाने प्रयास किया। लेकिन उनका मकसद किसी बोली को विकसित करना नहीं था। बोली के माध्यम से उस लिपि विहीन समुदाय के बीच घुसकर अपने पांव मजबूत करना था। उन्होनें ऐसा किया भी। और न जाने कितने जनजातीय समुदायों के बीच घुसकर उनकी सांस्कृतिक अस्मिता को अपने में आत्मसात कर लिया। बोली के साथ उनके रीति.रिवाजए पर्व.त्यौहारए आस्थाएप्रतीक सब विलुप्त हो गये। मुझे लगता था कि किसी समुदाय के लिए इससे दुखद स्थिति कोई नहीं हो सकती कि उसकी सांस्कृतिक पहचान ही समाप्त हो जाये। उन्हें अपने पुरखों के जीवन संघर्ष के इतिहास और उनसे निकले जातीय मूल्यों से विमुख होना पड़े। मुझे तब लगता आकाशवाणी और दूरदर्शन को इस दिशा में कुछ काम करना चाहिए। इस दृष्टि से रांची विश्वविद्यालय का जनजातीय भाषा.संस्कृति अध्ययन संस्थान तथा बिहार ट्राइबल रिसर्च इन्स्टियूट ;बीण्टीण्आरण्आईद्ध अपनी
तरह से काम कर रहे थे। लेकिन उनकी दृष्टि संभवतरू सीमित थी या वे लुप्त होती जनजातीय सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति उतने संवेदनशील नहीं थेए जितनी उस समय आवश्यक थी। इस बात की अधिक पुष्टि तब हुई जब जनजातीय भाषा संस्कृति अध्ययन संस्थान के तत्कालीन निदेशक और बाद में रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने डॉण् रामदयाल मुण्डा के मुंह से यह सुनने को मिला कि जो कार्य आप जैसे आकाशवाणी के लोग कर रहें हैं।वह कार्य तो वास्तव में हमें करना चाहिए। इसका उत्तर मैं बड़ी विनम्रता से देता और कहताए
ष्ष्डॉक्टर साहब हम तो न आपकी बोली जानते हैं न संस्कृति के बारे में ज्ञान है। काम तो सब आप लोग ही कर रहें हैं। आकाशवाणी ने आपको एक बड़ा मंच प्रदान किया है। जो आपके काम को विस्तार दे रहा है।
ष्रोमन लिपिष् के ष्कम्बलष् में लुप्त होती जनजातीय अस्मिता काण्डे मुण्डाए मुण्डारी बोली के विशेषज्ञ थे और प्रसारण की दृष्टि से मुण्डारी कार्यक्रमों की देखभाल उनकी जिम्मेदारी थी। आकाशवाणी रांची से कुल नौ आदिवासी बोलियों के कार्यक्रमआकाशवाणी रांची से प्रसारित होते थे। मुण्डारीए संतालीए होए ऊरांवए नागपुरियाए खडियाए खोरठाए कुरमाली और पंचपरगनियां आदि। दक्षिण छोटा नागपुर में कोई बत्तीस आदिवासी समुदाय हैं।
सबकी अपनी.अपनी बोलियां हैं। इनमें कुछ समुदाय लुप्त होने के कगार पर हैं। असुरए पहाडि़याए विरजियए जयन्तिया ऐसे ही लुप्त प्राय समुदाय हैं। किसी समुदाय के एक हजार तो किसी के पांच सौ सदस्य शेष बचे थे उन दिनों। ये घूमंतू जनजातियां हैं। अतरू इनके बारे में पता लगाना बड़ा मुश्किल होता था कि अब वे दक्षिण छोटा नागपुर के किस हिस्से में मिलेंगे।पहाड़ो पर या जंगलों में। सरकार ने इन्हें बचाने के बड़े प्रयास किए। कोशिश की कि इन्हें पक्के मकानों में रहने के लिए बहलाया जा सके। लेकिन उनका तो रहन.सहन ही अपनी तरह का था। नहीं रह पाये। असुर जनजाति के लोगों की तो कई और खामियतें बतायी जाती थी।जिनमें बन्दर पकड़ने की कला और लोहा गलाने की कला प्रमुख हैं। कहा जाता है कि ये दोनोकलाएं दुनिया को असुर जनजाति को ही देन है। कहते हैं कितने ही ऊँचे पेड़ पर बंदर बैठा होअसुर जनजाति का व्यक्ति पता नहीं क्या करता था कि बन्दर झट से नीचे आ पड़ता हैऔर पकड़ा जाता है। इसी तरह असुर जनजाति के बारे में कहा जाता था कि असुर जनजाति की लडकियाँ किसी जंगली पेड़ के पत्ते से अपना घर बनाती हैं। इसकी बनावट इस तरह की होती है कि भयंकर समस्या कुछ और थीदरअसलए समस्या वो नहीं थी जो दिख रही थी। समस्या यह थी कि दक्षिण छोटानागपुर में जितनी भी जनजातियां थी उनकी बोलियां अलग.अलग थी। और थी सब अपने आप में समुद्र में टापू की तरह। उन बोलियों के जानकार अपने आप में सिमटे हुए थे। इसलिए स्वंय भू विशेषज्ञ
थे। उन्हें लगता था जितना वे सोचते हैं दुनिया उतनी ही है इसलिए इन बोलियों के बोलने वाले लोगों के मध्य वैचारिक आदान.प्रदान की कोई विशेष स्थिति नहीं थी।
बीण्टीण्आरण्आई तथा रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय शोध अध्ययन संस्थान अपने तरीके से काम तो कर रहे थे लेकिन इन बोलियों के बीच जिस तरह पुल बनना चाहिए थाए तब तक नहीं बन सका था।इसलिए जरूरी था कि इन बोलियों व इनके साहित्य को ष्आइसोलेशनष् की स्थिति से बाहर लाया जाये। इसकी तरफ शायद उस समय उनका ध्यान कम था। आकाशवाणी रांची द्वारा रचनाकारों को उनके सीमित रचनात्मक दायरे से निकालकर बड़ा कैनवास प्रदान किया गया। यह काम न आसान थाए न कठिन। आसान इसलिए नहीं थाए क्योंकि मैं न तो उनकी बोली जानता थाए न उनके रचनाकारों को और न ही उनकी जनजातीय संस्कृति को। कठिन इसलिए नहीं था कि धीरे.धीरे ऐसा वातावरण आकाशवाणी रांची के कारण बना कि जनजातीय लोगों में अपने आपको सामने लाने की एक होड़ सी मचने लगी।
ष्साहित्यिकी और वनांचलष् हुआ यूं किए मैंने दो नये कार्यक्रम शुरू करने का प्रस्ताव तत्कालीन केन्द्र निदेशक श्री रतिराम जी के सम्मुख रखा। उनके नाम सुझाये ष्साहित्यिकीष् और ष्वनांचलष्। ष्साहित्यिकीष् में
दक्षिण छोटा नागपुर की जनजातीय बोलियों के रचनात्मक और उनके साहित्य के बारे में बात होती थी। ष्वनांचलष् में इन बोलियों के रचनाकरों के लम्बे.लम्बे इंटरव्यू प्रसारित करने की योजना बनी।
शुरू में तो केन्द्र निदेशक महोदय ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन कार्यक्रम प्रसारित होने लगे तो एक दिन उन्होनें उनके स्वरूप को लेकर ना पसंदगी जाहिर कर दी। बोलेए ष्ष्आप ये क्या करते हैंघ् स्टूडियो में लोगों को बुलाकर उनकी बीबियों का नाम पता पूछते है। लोग क्या सोचते होगे। आकाशवाणी अब ऐसे कार्यक्रम प्रसारित करने लगी हैघ् करने को और कुछ नही है। मैं मन ही मन मुस्कराया और भीतर ही भीतर बुदबुदायाए ष्ष्अब मैं आपको ये कैसे समझाऊँ साब कि किसी रचनाकार के जीवन में विवाह कितना बड़ा टर्निंग पॉइन्ट होता है।उसके लिए शादी बिल्कुल तलवार की धार की तरह होती है। जिस पर पति.पत्नी दोनों को चलना होता है। एक दूसरे का हाथ पकडे हुए। इसमें पत्नी यदि रचनाकार की मनस्थिति के प्रति संवेदनशील न हो तो रचनाकार को पतन से कोई नहीं बचा सकता। और यदि रचनाकार सजग नहीं है तो पत्नी एक उपेक्षित जिदंगी जीने को विवश होगी। दोनो ही स्थितियों में परिवार का पतन सुनिश्चित होता है। रचनाकार का भी। निदेशक महोदय को अंत तक मैं रचनाकार के जीवन में जीवन साथी की भूमिका को ठीक से रेखांकित नहीं कर सका। अंत मेंए मैंने निराशा के साथ उनसे कहाए ष्ष्सरए मुझे तीन महीने का समय दीजिए। तीन महीनों में अगर ये दोनों कार्यक्रम स्थापित न कर पाया तो स्वतरू ही छोड़ दूंगा।ष्ष्आपको क्या लगता हैघ् तीन महीने तक में आपको माइक्रोफोन से खेलने दूंघ्ष्ष्. निदेशक महोदय ने लगभग झिड़कते हुए कहा। ष्सरष्! इतना रिस्क तो उठाना पडेगा।ष् मैंने उत्तर दिया। ष्ष्नहीं! यह नहीं हो सकता कुछ और सोचिएष्ष् दृ मैं जितना विनम्र था निदेशक उतने ही निष्ठुर थे। नियति को कुछ और ही मंजूर था। जब तक में कुछ नया सोचता निदेशक महोदय चार महीने के अवकाश पर चले गये। सहायक केन्द्र निदेशक श्रीमती ग्रेस कुजूर को निदेशक का कार्य भी दे दिया गया। एक दिन अवसर पाकर मैंने उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराते हुए कहा किए ष्ष्आप तो स्वंय उरांव जनजातीय समुदाय से हैं। आपको तो इन कार्यक्रमों को बचाने के बारे में सोचना चाहिए।वे एक क्षण को मौन हुई। फिर मानो कोई निर्णय ले लिया हो। बोलीए दृ ष्ष्गो अहेड।और कार्यक्रमों ने गति पकड़ ली। स्वरूप भी स्थिर हो गया। तीन महीने होते.होते दोनो कार्यक्रम स्थापित हो गये। ष्साहित्यिकी. में बोलियों के साहित्य की चर्चा होती।ष्वनांचलष् में आदिवासी रचनाकारों के व्यक्तिगति जीवनए संघर्ष और उपलब्धियों को लेकर भेंटवार्ताएं प्रसारित होती। ष्साहित्यिकीष् में मेरी अधिक रूचि इस बात में रहती कि दक्षिण छोटा नागपुर की बोलियों के साहित्येतिहास का लेखन करने वालों को एक व्यवस्थित इतिहास लिखने में सुविधा हो। इसके लिए रांची विश्विद्यालय के जनजातीय भाषा अध्ययन संस्थान के प्रवक्ताओं के साथ शोध छात्रों को भी जोड़ने
का प्रयास होता जो वार्ताओं के लिए सामाग्री जुटाते। सामाग्री में जोर इस बात पर ज्यादा होता कि सिलसिलेवार तरीके से कालक्रमानुसार रचनाकारोंए उनकी रचनाओंए उनके प्रकाशन वर्षए उनकी विषयवस्तुए आदि के बारे में श्रोताओं को जानकारी दी जा सके। किसी हद तक इस काम में सफलता भी मिली। क्षेत्र की हर बोली के जानने वाले अपनी बोलीए उसके साहित्य और साहित्यकारों के बारे में जानने को उत्सुक रहने लगे। बोलियों के स्वरूप और उनके भाषा वैज्ञानिक तथा व्याकरणिक स्वरूप के प्रतिसजग होने लगे। स्वतरू ही खोज में जुटने लगे। एक बार तो मुण्डारी के जानने वाले एक रचनाकार के बारे में पता चला कि वह जंगल में बैठा ष्मुण्डारीष् में ष्ऋग्वेदष् का अनुवाद कर रहा है। यह उन दिनों की बात है जब अक्सर सुनते थे कि हिन्दी की
महान छायावादी कवि श्रीमती महादेवी वर्मा ऋग्वेद का पद्यानुवाद कर रही हैं। आदिवासी समाज के ऐसे लोगों का सामने आना उत्साह बढ़ाने वाला था। हर जनजाति के लोग मेरे पास आते। उनकी जिज्ञासा होती कि उनकी बोली के बारे में प्रसारण कब शुरू होगाघ् मैं भी अपनी तरह से उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करता। चार महीने बीत चुके थे दृ कार्यक्रम शुरू हुए। दोनों कार्यक्रमों की चर्चा खूब होती। दोनों कार्यक्रमों ने स्तर की दृष्टि से वह मुकाम हासिल कर लिया था कि जो व्यक्ति उन कार्यक्रमों में प्रसारित हो जाता उसे उसकी बोली का स्थापित रचनाकार मान लिया जाता।
इस स्थिति पर पहुंचने के बाद कोई नासमझ ही होता जो अपनी सनक में कार्यक्रम को बन्द करता। रांची केन्द्र के निदेशक ने भी सूझ.बूझ दिखाई। छुट्टी से लौटने के बाद उन्होंने कार्यक्रमों के बारे में अपनी राय बदल ली और कार्यक्रमों का प्रसारण जारी रखने दिया। इन कार्यक्रमों के प्रति लोगों को गंभीरता की पता तब चला जब मेरा स्थानांतरण रांची से राष्ट्रीय प्रसारण सेवाए नई दिल्ली के लिए हुआ। लोगों को इस बात का पता चल गया था कि मैं जाने वाला हूं। तभी एक दिन मैंने देखा कि मेरे कमरे में दसियों लोग आ गये हैं। अलग.अलग क्षेत्रों और बोलियों के बोलने वाले लोग। उनमें से एक ने कहना शुरू किया दृहमें पता चला है आप दिल्ली जा रहे हैं. लेकिन जो आग आपने इलाके में जलाई है उसे हम बूझने नहीं देंगे। इस कार्य को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारीअब हमारी है। मजेदार बात यह कि जिन केन्द्र निदेशक महोदय ने शुरू में कहा था कि मैं आकाशवाणी का समय बरबाद कर रहा हूं उन्हीने मेरी फेयरवैल पार्टी में यह कहकर तारीफ भी की कि मेरा कार्यक्रमों के बारे में आकलन गलत था। वस्तुतरू सोमदत्त जी ने जो कार्यक्रम ष् ष् ष्साहित्यकीष् और ष्वनांचलष् नाम से शुरू किये थे उनका महत्व अब समझ में आता है। सच कहूं तो यही वह बीज था जिसने आगे चलकर ष्आकाशवाणी लोक संपदा संरक्षण महापरियोजनाष् का रूप लिया। नबम्वर 2014 में।
--------------- सोमदत्त शर्मा ----------
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